नई पुस्तकें >> मुसाफिर Cafe मुसाफिर Cafeदिव्य प्रकाश दुबे
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हम सभी की जिंदगी में एक लिस्ट होती है। हमारे सपनों की लिस्ट, छोटी-मोटी खुशियों की लिस्ट। सुधा की जिंदगी में भी एक ऐसी ही लिस्ट थी। हम सभी अपनी सपनों की लिस्ट को पूरा करते-करते लाइफ गुज़ार देते हैं। जब सुधा अपनी लिस्ट पूरी करते हुए लाइफ़ की तरफ़ पहुँच रही थी तब तक चंदर 30 साल का होने तक वो सबकुछ कर चुका था जो कर लेना चाहिए था। तीन बार प्यार कर चुका था, एक बार वो सच्चा वाला, एक बार टाइम पास वाला और एक बार लिव-इन वाला। वो एक पर्फेक्ट लाइफ चाहता था।
मुसाफिर Cafe कहानी है सुधा की, चंदर की, उन सारे लोगों की जो अपनी विश लिस्ट पूरी करते हुए perfect लाइफ खोजने के लिए भटक रहे हैं।
मुसाफिर Cafe कहानी है सुधा की, चंदर की, उन सारे लोगों की जो अपनी विश लिस्ट पूरी करते हुए perfect लाइफ खोजने के लिए भटक रहे हैं।
बात से पहले की बात
बातें किताबों से बहुत पाले पैदा हो गई थीं। हमारे आस-पास बातों से भी पुराना शायद ही कुछ हो। बातों को जब पाली बार किसी ने संभाल के रखा होगा तब पहला पन्ना बना होगा। ऐसे ही पन्नों को जोड़कर पहली किताब बनी होगी। इसीलिए जिदंगी को सही से समझने के लिए किताबें ही नहीं बाते भी पढ़नी पड़ती है। बाते ही क्या वो सबकुछ जो लिखा हुआ नहीं है, वो सबकुछ जो किसी ने सिखाया नहीं। वो सबकुछ समझना पड़ता है जो बोल के बोला गया और चुप रहकर बोला गया हो। पता नहीं दो लोग एक-दूसरे को छूकर कितना पास आ पाते हैं। हाँ, लेकिन इतना तय है कि बोलकर अक्सर लोग छूने से भी ज्यादा पास आ जाते हैं। इतना पास जहाँ छूकर पहुँचा ही नहीं जा सकता हो। किसी को छूकर जहाँ तक पहुँचा जा सकता है वहाँ पहुँचकर अक्सर पता चलता है कि हमने तो साथ चलना भी शुरु नहीं किया।
मुझे मालूम नहीं था कि ये बातचीत शुरु होकर कहाँ जाएगी। किसी भी बातचीत से पहले शायद ही किसी को पता होता हो ! बात से ही कोई बात निकलती है और फिर कईं बार बात दूर तक जाती है तो कई बार डक पर आउट हो जाती है। बातें दुनिया की तमाम खूबसूरत जरूरी चीजों जैसी हैं जो कम-से-कम दो लोगों के बीच हो सकती हैं। बातें हमारे शरीर का वो जरूरी हिस्सा होती है जिसको कोई दूसरा ही पूरा कर सकता है। अकेले बड़बड़ाया जा सकता है, पागल हुआ जा सकता है, बाते नहीं की जा सकती।
मुसाफिर Cafe को पढ़ने से पहले बस एक बात जान लेना जरूरी है कि इस कहानी के कुछ किरदारों के नाम धर्मवीर भारती जी की किताब ‘गुनाहों का देवता’ के नाम पर जान-बूझकर रखे गए हैं। इस कोशिश को कहीं से भी ये न समझा जाए कि मैंने धर्मवीर भारती की किताब से आगे की कोई कहानी कहने की कोशिश की है। धर्मवीर भारती के सुधा-चंदर को मुसाफिर Cafe के सुधा-चंदर से जोड़कर न पढ़ा जाए। भारती जी जिंदा होते तो मैं उनसे जरुर मिलकर उनके गले लगता, उनके मैर छूता। उनके किरदारों के नाम उधार ले लेना मेरे लिए ऐसा ही है जैसे मैंने उनके पैर छू लिए। मुझे धर्मवीर भारती जी को रेस्पेक्ट देने का यही तरीका ठीक लगा।
कहानी लिखने की सबसे बड़ी कीमत लेखक यही चुकाता है कि कहानी लिखते-लिखते एक दिन वो खुद कहानी हो जाता है। पता नहीं इससे पहले किसी ने कहा है या नहीं लेकिन सबकुछ साफ-साफ लिखना लेखक का काम थोडे न है ! थोड़ा बहुत तो पढ़ने वाले को भी किताब पढ़ते हुए साथ में लिखना चाहिए। ऐसा नहीं होता तो हम किताब में अंडरलाइन नहीं करते। किताब की अंडरलाइन अक्सर वो फुल स्टॉप होता है जो लिखने वाले ने पाने वाले के लिए छोड़ दिया होता है। अंडरलाइन करते ही किताब पूरी हो जाती है।
मुसाफिर Cafe की कहानी मेरे लिए वेसे ही है जेसे मैंने कोई सपना टुकड़ों-टुकडों में कई रातों तक देखा हो। एक दिन सारे अधूरे सपनों के टुकड़ों ने जुड़कर कोई शक्ल बना ली हो। उन टुकडों को मैंने वैसे ही पूरा किया है जैसे आसमान देखते हुए हम तारों से बनी हुई शक्लें पूरी करते हैं। हम शक्लों में खाली जगह अपने हिसाब से भरते हैं इसलिए दुनिया में किन्हीं भी दो लोगों को कभी एक-सा आसमान नहीं दिखता। हम सबको अपना-अपना आसमान दिखता है।
बस, ये आखिरी बात बोलकर आपके और कहानी के बीच में नहीं आऊँगा। कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होतीं। या तो वो हो चुकी होती हैं या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली होती हैं।
दिव्य प्रकाश दुबे
जून 2016 मुम्बई
मुझे मालूम नहीं था कि ये बातचीत शुरु होकर कहाँ जाएगी। किसी भी बातचीत से पहले शायद ही किसी को पता होता हो ! बात से ही कोई बात निकलती है और फिर कईं बार बात दूर तक जाती है तो कई बार डक पर आउट हो जाती है। बातें दुनिया की तमाम खूबसूरत जरूरी चीजों जैसी हैं जो कम-से-कम दो लोगों के बीच हो सकती हैं। बातें हमारे शरीर का वो जरूरी हिस्सा होती है जिसको कोई दूसरा ही पूरा कर सकता है। अकेले बड़बड़ाया जा सकता है, पागल हुआ जा सकता है, बाते नहीं की जा सकती।
मुसाफिर Cafe को पढ़ने से पहले बस एक बात जान लेना जरूरी है कि इस कहानी के कुछ किरदारों के नाम धर्मवीर भारती जी की किताब ‘गुनाहों का देवता’ के नाम पर जान-बूझकर रखे गए हैं। इस कोशिश को कहीं से भी ये न समझा जाए कि मैंने धर्मवीर भारती की किताब से आगे की कोई कहानी कहने की कोशिश की है। धर्मवीर भारती के सुधा-चंदर को मुसाफिर Cafe के सुधा-चंदर से जोड़कर न पढ़ा जाए। भारती जी जिंदा होते तो मैं उनसे जरुर मिलकर उनके गले लगता, उनके मैर छूता। उनके किरदारों के नाम उधार ले लेना मेरे लिए ऐसा ही है जैसे मैंने उनके पैर छू लिए। मुझे धर्मवीर भारती जी को रेस्पेक्ट देने का यही तरीका ठीक लगा।
कहानी लिखने की सबसे बड़ी कीमत लेखक यही चुकाता है कि कहानी लिखते-लिखते एक दिन वो खुद कहानी हो जाता है। पता नहीं इससे पहले किसी ने कहा है या नहीं लेकिन सबकुछ साफ-साफ लिखना लेखक का काम थोडे न है ! थोड़ा बहुत तो पढ़ने वाले को भी किताब पढ़ते हुए साथ में लिखना चाहिए। ऐसा नहीं होता तो हम किताब में अंडरलाइन नहीं करते। किताब की अंडरलाइन अक्सर वो फुल स्टॉप होता है जो लिखने वाले ने पाने वाले के लिए छोड़ दिया होता है। अंडरलाइन करते ही किताब पूरी हो जाती है।
मुसाफिर Cafe की कहानी मेरे लिए वेसे ही है जेसे मैंने कोई सपना टुकड़ों-टुकडों में कई रातों तक देखा हो। एक दिन सारे अधूरे सपनों के टुकड़ों ने जुड़कर कोई शक्ल बना ली हो। उन टुकडों को मैंने वैसे ही पूरा किया है जैसे आसमान देखते हुए हम तारों से बनी हुई शक्लें पूरी करते हैं। हम शक्लों में खाली जगह अपने हिसाब से भरते हैं इसलिए दुनिया में किन्हीं भी दो लोगों को कभी एक-सा आसमान नहीं दिखता। हम सबको अपना-अपना आसमान दिखता है।
बस, ये आखिरी बात बोलकर आपके और कहानी के बीच में नहीं आऊँगा। कहानियाँ कोई भी झूठ नहीं होतीं। या तो वो हो चुकी होती हैं या वो हो रही होती हैं या फिर वो होने वाली होती हैं।
दिव्य प्रकाश दुबे
जून 2016 मुम्बई
क से कहानी
‘‘हम पहले कभी मिले हैं ?’’
सुधा ने बच्चों जैसी शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘‘शायद !’’
‘‘शायद ! कहाँ ?’’ मैंने पूछा।
सुधा बोली, ‘‘हो सकता है कि किसी किताब में मिले हों’’
‘‘लोग कॉलेज में, ट्रेन में, फ्लाइट में, बस में, लिफ्ट में, होटल में, कैफे में तमाम जगहों पर कहीं भी मिल सकते हैं लेकिन किताब में कोई कैसे मिल सकता है ?’’ मैंने पूछा।
इस बार मेरी बात काटते हुए सुधा बोली, ‘‘दो मिनट के लिए मान लीजिए। हम किसी ऐसी किताब के किरदार हों जो अभी लिखी ही नहीं गई हो तोत ?’’
ये सुनकर मैंने चाय के कप से एक लंबी चुस्की ली और कहा, ‘‘मजाक अच्छा लर लेती हैं आप !’’
सुधा ने बच्चों जैसी शरारती मुस्कुराहट के साथ कहा, ‘‘शायद !’’
‘‘शायद ! कहाँ ?’’ मैंने पूछा।
सुधा बोली, ‘‘हो सकता है कि किसी किताब में मिले हों’’
‘‘लोग कॉलेज में, ट्रेन में, फ्लाइट में, बस में, लिफ्ट में, होटल में, कैफे में तमाम जगहों पर कहीं भी मिल सकते हैं लेकिन किताब में कोई कैसे मिल सकता है ?’’ मैंने पूछा।
इस बार मेरी बात काटते हुए सुधा बोली, ‘‘दो मिनट के लिए मान लीजिए। हम किसी ऐसी किताब के किरदार हों जो अभी लिखी ही नहीं गई हो तोत ?’’
ये सुनकर मैंने चाय के कप से एक लंबी चुस्की ली और कहा, ‘‘मजाक अच्छा लर लेती हैं आप !’’
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लोगों की राय
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